में होते है (२०६) हड्डियां

 


    कविता

“ शरीर में होते है (२०६) हड्डियां ”

शरीर में (२०६) हड्डियां है और संविधान में (१६७०) क़ानून, हड्डी से लेकर क़ानून सब तोड़ता हूँ।

यह डायलॉग (२०१३) की मशहूर एक्शन-क्राइम फ़िल्म

"शूटआउट एट वडाला" का है, बात करते है उसी डायलॉग की जिसकी हकीकत आज के दौर में ज़रूरी है।

 मासूम सी थी वह,

नादान सी थी वह।

उम्र भी कहाँ उसकी बड़ी थी,

अभी अपने जीवन की पहली सीढ़ी पर वह खड़ी थी।

  दिल लगाने की उम्र उसकी सही थी,

मोहब्बत उसने भी किसी से की थी।

अपने घर की वह लाज थी,

यह अलग बात नहीं के वह आज थी।

वक़्त मगर जब आया,

किस्मतों के पन्ने फाड़ लाया।

उन दरिंदो ने उस्का दिल दुखाया,

जिसने किसी और से था दिल लगाया।

जिसका हाथ भी पकड़ने से पहले इजाज़त थी लेनी,

उसी की इज़्ज़त को हाथों से थी लूटी।

दर्द हुआ भी और तड़प भी टूटी,

जैसे उस नादान की ज़िन्दगी ही फूटी।

मौत के घाट उतार दिया उसी को,

छोड़ दिया सरे आम एक ज़िन्दगी को।

इंतजार था घर पर उसी का,

जहां था उस्का चाहने वाला ख़ुशी का।

  लाश आयी जब घर रंगों में हो कर लाल,

घर वालों का जैसे हुआ बेहाल।

रो रो कर थे आँसू हवा हो जाते,

दिल के दर्द जैसे खफा हो जाते।

हाथों में आशिक के था उस्का जोड़ा,

जिसने मारा था दिल पे हथोड़ा।

चूड़ियाँ, बिंदिया और बाली,

अब माँग रह गयी थी खाली।

आशिक ने खायी यह कसम,

अब ना होगी कोई भी रसम।

अब मोहब्बत का तजुर्बा हो गया है,

कोई अपना ही करीबी खो गया है।

सबक उन दरिंदो को सिखाना है,

मोहब्बत अपनी अब जाताना है।

जो दर्द सेह गयी वह नादान,

उसी दर्द को अब किसी और को बताना है।

   शरीर में होते है (२०६) हड्डियां,

उन सभी हड्डियों को तुडवाना है।

संविधान के (१६७०) क़ानूननो में अब,

सबसे अव्वल यह कानून बनाना

   कोई किसी भी मज़हब की इज़्ज़त ना लुटे,

ऐसा एक बड़ा कदम उठाना है।

उन दरिंदो को ज़िन्दगी का,

सबसे बड़ा सबक सिखाना है।

मोहमद नियाज़ 


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