“ है गुज़ारिश बचपन का ”
क्या हम बड़े हो गए?
क्या हम सच में इतने बड़े हो गए?
प्रश्न है आज मेरा मेरे वर्तमान से...
क्या बचपन छोड़ आए हम?
क्या उस बचपना को भी छोड़ आए हम?
वो बचपन जहां.....
ना पाने की साजिश थी,
ना कुछ खोने का डर था,
ना नौकरी की चिंता थी,
ना गलती का अफसोस था,
बस! बेफिक्र थे हम,
क्या खुशी क्या गम!
ना दुनिया की भागदौड़ थी,
ना विचारों का भागमभाग था,
ना खिलौनों से परे कुछ और की उम्मीद थी,
ना चॉकलेट से ज्यादा कुछ और की चाहत थी,
ना पैसों के लिए सोचना पड़ता था,
ना जीवन के हार-जीत का हिसाब था,
मिट्टी की खुशबू और दोस्तों का साथ,
दिनभर खेलकूद, कहानियों वाली रात!
रिचार्ज होता था अनलिमिटेड मस्ती का,
प्री-पेड या पोस्ट-पेड, क्या फ़र्क पड़ता था!
चिंता थी बस गणित परीक्षा की हानी-लाभ (प्रॉफिट-लॉस) की,
किसको अंदाज़ा था असली गणित तो स्कूल के बाद शुरू होगा!!!!
क्या हम सच में इतने बड़े हो गए?
प्रश्न है आज मेरा मेरे वर्तमान से...
क्या बचपन छोड़ आए हम?
क्या उस बचपना को भी छोड़ आए हम?
क्या दुनिया की भीड़ में कहीं खो गए हम?
गुज़ारिश आज उस बचपन की....
गुज़ारिश आज दवाइयों की नहीं, मां की गोद की,
जो अनमोल था, जहां सुकून था!
गुज़ारिश आज स्वाधीनता की नहीं, पापा की डांट का,
जो जरूरी था, जहां अनुशासन था!
गुज़ारिश आज ऑनलाइन की नहीं, दोस्तों की उपस्थिति का,
जो सब कुछ था, जहां संतुष्टता थी!
गुज़ारिश आज मेरे बचपन का, वही बचपना का,
जो जीवंत था, जहां जान थी,
जो जीवंत था, जहां जान थी,
जो जीवंत था, जहां जान थी!
है गुज़ारिश बचपन का....
आज है गुज़ारिश बचपन का.....
वही बचपना का......है गुज़ारिश.....
-
जासमीन पांडा

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